Thursday, October 8, 2009


...ऐसा क्यूँ लगा??
ये शराफत,ये नफासत सब झूठ ,मुखौटा,नक़ल क्यूँ लगा,
वो बस्तियां जलाने वाला मुझे मेरा हम-शक्ल क्यों लगा?


थे इरादे जिनके साए में रह राह--जहाँ चलने का,
उनका फलसफा आज मेरे इरादों में दखल क्यों लगा?

जिन उसूलों को रखा उम्र-भर टांग सामने,उनकी
बातें करने वाला वो शख्स मुझे कम-अक्ल क्यों लगा?

बेमानी है सवाल उठाने हालातों के,सवाल यह है कि
एक ग़लत रास्ता मुझे मेरी मुश्किलों का हल क्यों लगा?

कुछ बात नहीं थी उन दरकते दरख्तों में ,फ़िर
उसके झोपडे से कमतर मुझे मेरा महल क्यों लगा?


मैले-चिथड़े ही थे नसीब उस नाचीज़,नामुराद बा-ईमान को,पर
उसके रेशों का रंग मेरे धुलें कपडों से धवल क्यों लगा?

हार के ही निकला हूँ दर से उस शख्स के ,तब भी
अन्दर कहीं अन्तर कुछ शीतल क्यों लगा?

-अभिनव शंकर 'अनिकुल'

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