...ऐसा क्यूँ लगा??
ये शराफत,ये नफासत सब झूठ ,मुखौटा,नक़ल क्यूँ लगा,
वो बस्तियां जलाने वाला मुझे मेरा हम-शक्ल क्यों लगा?
थे इरादे जिनके साए में रह राह-ऐ-जहाँ चलने का,
उनका फलसफा आज मेरे इरादों में दखल क्यों लगा?
जिन उसूलों को रखा उम्र-भर टांग सामने,उनकी
बातें करने वाला वो शख्स मुझे कम-अक्ल क्यों लगा?
बेमानी है सवाल उठाने हालातों के,सवाल यह है कि
एक ग़लत रास्ता मुझे मेरी मुश्किलों का हल क्यों लगा?
कुछ बात नहीं थी उन दरकते दरख्तों में ,फ़िर
उसके झोपडे से कमतर मुझे मेरा महल क्यों लगा?
मैले-चिथड़े ही थे नसीब उस नाचीज़,नामुराद बा-ईमान को,पर
उसके रेशों का रंग मेरे धुलें कपडों से धवल क्यों लगा?
हार के ही निकला हूँ दर से उस शख्स के ,तब भी
अन्दर कहीं अन्तर कुछ शीतल क्यों लगा?
-अभिनव शंकर 'अनिकुल'
हकीकत-ऐ-ज़िन्दगी
हम तरसते रह गए नींद को,जिनके ख्वाब पुरे
नही हुएं ,थे वे बड़े किस्मत वाले यारों
समझ चुके है हम हकीकत इस इस जिंदगी की
जी रहे है देख मौत के दरवाजे पे ताले यारों
चले गए है चोर चोरी कर उस पार
आओ मिलकर जोर से शोर मचा लें यारों
जो हुई कभी हलकी सी खता हमसे
उन्होंने कई बार हमारे कत्ल कर डाले यारों
सरकार खिझी है लोगों को ये न समझा पाने पे कि हर
वो शख्स हुआ न-उम्मीद,था उससे जो कुछ उम्मीद पाले यारों
हो जाए होश फाख्ता फसानो के भी
ज़िन्दगी हुई ऐसे हकीकत के हवाले यारों
अरसे से महरूम हैं लोग यहाँ रु-ब-रु होने से रौशनी के
चलो उनके आने से हुए कुछ तो उजाले यारों
बड़े बदरंग दीखते हैं इस दौर के इन्सां
ऊपर से गोरे,अन्दर से काले यारों
अब समझा क्यों न हो सके कम तासीर इस तीरगी के
सबने थाम रखीं हैं बुझी मशालें यारों
उसने उफ़ तक नही कि कभी किसी सितम पर
आओ उसे जी भर कर सता लें यारों
कातिल मौजूद है मौका-ऐ-वारदात पर
लापता सारे के सारे रखवाले यारों
उनकी तो फितरत है बस्तियां जलाना
हमीं कुछ झोपडे बचा लें यारों
हो जाएगा परिचित हमारे 'सभ्य' समाज के कायदों से भी
पहले रखते है उस भूखे के मुंह में कुछ निवाले यारों
ये किन्हें ले शुरू किया आपने ये सफर
सबके पैरों में पड़े है छालें यारों
-अभिनव शंकर 'अनिकुल'
ग़ज़लें
टूटते रहे ग़मों के सफिने कुछ इस कदर
कि क़यामत क़यामत नही रही
नज़रें नही चुराते जुर्म-गर अब ज़माने के
लोगों के आंखों में शायद वो हिकारत नही रही
बढ़ते गए बे-इन्साफियों के मामलें
गोया ऊपरवाले कि अदालत नही रही
चौकन्ने है गली के कुत्ते आज भी
चोरों के क़दमों में आहट नही रही
हवा बह रही है बाहर मदहोश सी
खिड़कियाँ खोलने कि आदत नही रही
रखवाले रहते है यहाँ रहम पर खौफ-जदों के
अब मुमकिन इस मुल्क में किसी कि हिफाजत नही रही
हौसलें बढ़ रहे हैं हुक्मरानों के
क्योंकि ग़दर कि हमाकत नही रही
जिंदगी हँसती है हमें देख आज भी
हमारे ही लबों पे मुस्कराहट नही रही
संसद सुनती ही आई है ऊँचा
तेरे तान में वो ताकत नही रही
मत बोल खुदा के बारे में कुछ भी
मजहब में अब इसकी इजाज़त नही रही
अब नही पिघलते दिल नज़रों से
आंखों में वो शरारत नही रही
आज भी बैठी है रूह इंतज़ार में
हाँ,अब वो शिद्दत नही रही
नही लुट पायें वो अब अभी सब-कुछ ,पर सदमा-ऐ-दिल
ये समझ पाने कि हालत नही रही
झुकते तो है सर अब अभी उनके निकलने पर सड़को पे
क्या हुआ जो दिल में इज्ज़त नही रही
-अभिनव शंकर 'अनिकुल'
भूखी लाश की आवाज़
चुनने के बाद न जाने किस खता पर
वो इस कदर नाराज हुएं
की हमारी भूख भरी चीखें
उनके कानों में बे-असर ,बे-आवाज़ हुएं।
आज एक बेबस चल बसा
एक गरीब खामोश हुआ
आज उन्होंने संसद नही चलने दी
क्योंकि उन्हें इसका अफ़सोस हुआ।
हम ता-उम्र नंगे खड़े रहे उनके दर पर
पर वो हमारी बदहाली से आज जाने जायेंगे
मैं भूखा मरा लेकिन मेरी लाश
पर कल कई कमाने आयेंगे।
ये जीवन फाकों में गुजरा
फाकों में ही अस्त हुआ
पर मैं खुश हूँ की मेरे मरने से
कईओं की रोजी-रोटी का बन्दों-बस्त हुआ।
हालांकि अफ़सोस यह है की निवाले हमारे
अब भी सेहत -मंदों की तिजोरियों में बंद है
गरीब कल भी कल की रोटी के लिए फिक्र-मंद था
आज भी कल की रोटी के लिए फिक्र-मंद है।
-अभिनव शंकर 'अनिकुल'
कहीं तुम .....
बज रहीं है शहनाईयां सारी धरा पर मधुर मधुर,
कहीं तुम पैरों को पायल पहनाएंतो नही बैठी !
चल रहा है कोई हमदम बन कर इन कठिन राहों पर ,
कहीं तुम अपना साया मेरे पीछे लगाए तो नही बैठी!
चिर कर अन्धकार प्रकाश की बेला चमक उठी है गगन पर,
कहीं तुम गेसुओं में गजरा लगाये तो नही बैठी!
विरह की वेदना को मिल गई है मिलन की गुंजन ,
कहीं तुम कंठ ऐ माधुर्य से मुझे बुलाएं तो नही बैठी!
झंझावातों के सागर में उमड़ पड़ी है सुकून की एक लहर ,
कहीं तुम अधरों पे मधुर मुस्कान सजाएं तो नही बैठी!
काली स्याह रात में चाँद भी शरमा के ओझल हो रहा,
कहीं तुम उसे अपना रूप दिखाएं तो नही बैठी!
धुल गयीं है दशों दिशाएं आज इस गोधुली बेला पर ,
कहीं तुम अपने कोमल बदन को नहलाएं तो नही बैठी!
न जाने क्यूँ धड़क रहा है ह्रदय आज जोरो से,
कहीं तुम अपना सीना मेरे सीने से लगाएं तो नही बैठी!
इस श्वेत वर्ण-आसमां पर छा रही क्यूँ कालिमा ,
कहीं तुम आखों में काजल लगाएं तो नही बैठी!
त्रिव इच्छा है गर मिलन की तो कर लो वरना यहीं कहूँगा
कहीं तुम इस समाज के भय से अपनी उत्कंठा छुपाएँ तो नही बैठी!
-अभिनव शंकर